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पिछले साल भी अपने फादर पर फादर्स डे को उन पर समर्पित एक लेख लिखा था ….. इस साल भी सोचा की कुछ ना कुछ तो पिता जी पर जरूर लिखा जाए….. लेकिन आप तो मेरी फितरत को जानते ही है की मैं ऐसी मस्त -२ महा कुत्ती चीज हूँ जिसकी दुम हमेशा टेढ़ी ही रहती है ….. जोकि हमेशा ही कुछ नया करने के मूड में रहता है …. लेकिन इसे मेरी मज़बूरी कहिये या फिर धर्म संकट की मेरे पिता जी सिर्फ एक ही है और उन पर मैं पिछले साल ही लिख चूका हूँ …. मेरी दुविधा तब खत्म हुई जब मैंने जागरण की इसी विषय पर ब्लॉग देखा ….. वोह बिलकुल पिछले साल वाला था , यहाँ तक की उस पर आई हुई पुराणी प्रतिक्रियाओं के साथ …. इसलिए मैंने भी अपने पिता जी पर लिखने का मन बनाया लेकिन कुछ अलग अंदाज़ में ……
यह मेरे स्कूल के दिनों की बात है की पता नहीं मेरे स्वर्गीय पिता जी मेरे पूज्यनीय दादा जी की वंशानुगत खानदानी परम्परा कों निभा रहे थे या फिर मेरे दादा जी के द्वारा किये गए जुल्मों सितम का बदला मुझको पीटकर अपनी “खानदानी- गुंडागर्दी” को आगे बढ़ा रहे थे …. लेकिन मैंने इस खानदानी गुंडागर्दी वाली परम्परा को तोड़ दिया ….. मैंने इसके लिए अपनी शादी और बच्चे होने का इंतज़ार नहीं किया बल्कि अपने पिता जी से खाई हुई मार का सिला मैं अपने से छोटे भाई बहनों कों पीट कर लेने लगा था ….. लेकिन जब मैं रात कों उन मासूमो कों सोए हुए देखता तो उन पर तरस आता और मन में बहुत ही पश्चाताप होता कि मैं इनको इतनी बेदर्दी से काहे को पीटता हूँ ….. भगवान का शुक्रिया भी अदा किया करता कि “हे भगवान ! शुक्र है कि तुमने मुझको सभी भाई बहनों में सबसे ऊपर के नम्बर पर रखा ….. अगर मैं छोटा होता और इनमे से कोई बड़ा होता , और मेरे जैसा व्यवहार मुझसे करता तो क्या मैं सहन कर लेता , कदापि नहीं” …….
एक बार अपने पिता जी से बचपन मैं रुष्ट होकर घर से भाग तो गया लेकिन यह समझ नहीं आये कि जाऊं तो कहाँ पर जाऊं ….. खैर गनीमत रही कि थोड़ी दूर पर बाज़ार के बगल वाली किसी गली में से मुझको सांझ होने से पहले ही घर वालो द्वारा ढूंड लिया गया ….. मेरे गुस्से कों देखते हुए माँ ने (उपरी मन से ) कहा कि तुम्हारे पिता जी बहुत ही ज़ालिम है , अब हम दोनों यहाँ पर नहीं रहेंगे , दूर कहीं चले जायेंगे ….. मेरे मन के हरिआले ज़ख्मो को थोड़ी बहुत राहत मिली और उसके बाद मैं हर रोज ही अपनी माता श्री से यह आशा रखने लगा कि वोह घर छोड़ कर मुझको दूर कहीं ले जाए ….. लेकिन मेरी यह आशा कभी भी पूरी नहीं हुई …..
इसे मेरे पिता जी की बदकिस्मती कहिये या फिर महिलाओं की खुशकिस्मती की सभी के बीच में मेरे पिता जी की एक शरीफ इंसान की इमेज थी …. जहाँ पर बाकी मर्दों के अपने सामने आ जाने मोहल्ले की औरते पर्दा कर लेती थी + सहम जाया करती थी + बहनों का आकाशवाणी प्रोग्राम खत्म करके उठ कर अपने -२ घर को चली जाया करती थी …… वहीँ पर मेरे पिता जी के अपने सामने आने पर कोई भी ना तो घबराती और ना ही पर्दा करती और ना ही उनकी महफ़िल बर्खास्त होती और उनका तप्सरा ऐ हिन्द बदस्तूर जारी रहता …. अगर मेरी माता जी यह कहते हुए महफ़िल से उठने की कोशिश करती की राजकमल के पिता जी को चाय पानी पिला दूँ , अगर देर हो गई तो वोह खफा होंगे ….. वोह तुरंत ही माता जी को यह कहते हुए फिर से बिठा लेती “बहिन जी आपके वोह ऐसे लगते तो नहीं खफा होने वाले”…… मेरी माता श्री को तो बैठने को कहा जाता लेकिन मुझको यह कहते हुए की “यह रन्नो में धन्ना कहाँ से आ गया” , जाने के लिए कहने पर भी मैं वहीँ पर अंगद के पाँव की तरह से जमा रहता ….. मेरा आज का स्वभाव शायद उस समय की “संगति” के कारण ही है ….
पिता जी के जिन्दगी जीने के असूल बड़े ही सीधे सादे थे ….. वोह घर में मेरी माता श्री जी को तो दुनिया भर की गालियाँ निकालते , लेकिन अपने श्वशुर यानि की मेरे नाना जी के सामने बिलकुल गरीब गाय बन जाते ….. माँ चाह कर भी कभी भी पूज्य पिता जी की असली हरकतों की शिकायत मेरे नाना श्री जी से नहीं कर पाई …. करती भी कैसे ? उसकी बातों का विश्वाश कौन करता …..सारी उम्र मेरे पिता जी मेरे नाना जी के लाडले + हीरे जैसे दामाद बने रहे ….. मेरे नाना श्री मेरे पिता जी की इतनी तारीफ किया करते थे की ईर्ष्यावश मेरी माँ का कलेजा छलनी-२ हो जाता ….. उसको कवर अप करने के लिए मेरे नाना जी को कहना पड़ता की मेरी यह वाली बेटी तो साक्षात लक्ष्मी है , जब भी यह आती है घर में धन की वर्षा होने लग जाती है …..
नाना जी और पिता जी में बहुत ही गहरी आपसी समझदारी थी जिसके कारण उन दोनों के बीच में इतना घालमेल भरा आपसी तालमेल बन गया था की मेरे इस दुनिया में अवतार लेने के एक हफ्ते पहले ही मेरी सबसे छोटी मौसी जी का जन्म हुआ ….. मेरे मामा जी ननिहाल संभाल रहे थे तो मेरी मासी जी हमार घर …… बेटी के लिए पंजीरी बनाने वाली नानी जी को को खुद ही पंजीरी खाने की मज़बूरी + जरूरत होने के कारण इस नेक कार्य को पड़ोसियों ने अंजाम दिया …… लोगों को तथा नाते – रिश्तेदारों को यही समझ में नहीं आ रहा था की श्वशुर शर्मा जी को बेटी पैदा होने की बधाई दी जाए या फिर नाती पैदा होने की , दामाद जी को बेटा पैदा होने की बधाई दी जाए या फिर साली के पैदा होने की ….. लेकिन फ्री का माल खाने वाले सभी चटोरे अन्दर से बहुत ही ज्यादा खुश थे की अब तो “दोनों तरफ से डबल पार्टी” खाने को मिलेगी …..
लेकिन मेरे स्कूल की समाप्ति तक मेरे पिता श्री और मेरे बीच एक अजीब सी समझदारी कायम हो चुकी थी ….. हमारी पसंद और नापसंद लगभग एक समान थी …… हमारे बीच जेनरेशन गैप ना के बराबर था , इसीलिए जब मैं पहले दिन कालेज जाने वाला था तो पिता जी ने अपनी खानदानी शराफत और इमानदारी का ढ़ोल यह कहते हुए मेरे गले में बाँध दिया की “बेटा एक बात का ध्यान रखना की तुम मांगलिक हो”….. इतना सुनना था की लड़कियों को कालेज में छेड़ने और घूरने तथा कमेन्ट्स करने के बचपन से बुने हुए मेरे सारे के सारे सपने एक ही पल में धाराशाई हो गए ….. पता नहीं पिता जी को मुझ पर इतना भरौसा क्यों था की अगर मैं किसी लड़की से टांका भिड़ाउंगा तो उससे शादी भी करूँगा ही …… कभी कभार तो दिल इतना दुखी हो जाता की मैं यहाँ तक सोचने लग जाता की अपने गले में एक तख्ती लटका लूँ की “मैं मांगलिक हूँ” इसको पढ़ने के बाद कोई तो मांगलिक लड़की पट ही जायेगी ….. मैं ही जानता हूँ की वोह तीन साल मैंने कालेज में किस तरह सब्र के घूंट पीते हुए निकाले ….. मुझे सर आइंस्टीन के ऐतहासिक उदगार हर समय याद आते रहे जिनकी तर्ज पर मैं भी कह सकता हूँ की “मुझको ऐसा लगता है की एक भरा पूरा समुन्द्र मेरे सामने पड़ा हुआ है और मैं उसमे रहते हुए भी खुद को प्यासा महसूस करता हूँ….. मैं चाहे जितना भी इसको समझ लूँ वोह हर हाल में हमेशा कम + नाममात्र ही रहेगा ……
अपने स्वर्गीय शरीफ बाप की अल्पज्ञानी शरीफ औलाद
राजकमल शर्मा
“मेरे स्वर्गीय पूज्यनीय पिता जी की अनमोल और अमिट यादे”
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