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दोस्तों वयंग्य लिखना एक अलग काम है ………और उसको पोस्ट करने के बाद खुद को किसी भी आलोचना को सुनने और सहने के लिए मानसिक रूप से तैयार रखना एक बहुत ही मुश्किल काम है … हरेक आदमी अपनी प्रशंशा ही सुनना चाहता है …इस मामले में बेचारी औरतो को हमने नाहक ही बदनाम कर रखा है ….. और जगह की बात तो मैं नहीं करता ….. लेकिन इस मंच पे इस बिमारी के कीटाणु सभी नरो और मादाओ में समान रूप में विधमान है .. ..किसी में कुछ कम तो किसी में कुछ ज्यादा ….खुदा का शुक्र है की किसी मामले में तो हम मर्दों ने औरतो की बराबरी की है … वरना तो हमेशा ही औरतो में मर्दों की बराबरी करने और उनसे आगे निकलने की होड़ मची रहती है ….
आज जब हम नेताओ और अभिनेताओ को चापलूसो से घिरा हुआ होने का दोषी करार देते है ….लेकिन अगर हम अपने गिरेबान में झांक कर देखेंगें तो पायेंगे की हममे से कोई भी अपनी आलोचना सुनना नहीं है चाहता …यहाँ तक की जो लोग यह कहते नहीं थकते की आलोचना को भी प्रशंशा की तरह समान रूप से ही सहज भाव से सकारात्मक रूप में लेना चाहिए …. यह हमको भीतरी रूप से निखार कर संवारती है ….वोह भी इस बीमारी से अछूते नहीं है ….. क्योंकि जब खुद उन पे पड़ती है तो गुस्से में उन महान विभूतियो को भी मैंने छोटी – मोटी बातो पे अक्सर ही अपना आपा खोते हुए देखा है ……किसी की भी कथनी और करनी इस मामले में एक नहीं है .. और ना ही नीयत नेक है ….. अब हम तो ठहरे 10 नम्बरी …. दुनिया चाहे एक नम्बरी हो तो हुआ करे अपनी बला से …. यार लोग तो खरी -२ बात ही कहेंगे …. गर चाहे तो सूली पे चढा दो …मार दो चाहे छोड़ दो अब आपकी मर्ज़ी … क्योंकि तीर तो अब कमान से छुट चूका है … यह तो अब किसी भी हाल में वापिस होने से रहा …. यह बंदा सच कह कर हर हाल में सभी तरह की सजा और सितम सहने के लिए तैयार है ….
कई बार मैंने जागरण वालो पे भी वयंग्य लिख मारा है ….लेकिन वोह अक्सर सुझाव के रूप में होता है … बशर्ते की उसको सकारात्मक रूप में देखा जाए ….. हालाकि जो भी उन पे लिखता हू …. उसको लिखने समय अकथनीय पीड़ा से गुजरना पड़ता है … और एहसान फरामोशी के एहसास जो मन में रहते है वोह अलग से ….. लेकिन क्या करूँ ?….. कलम है की अपना या पराया कहाँ देखती है … बिलकुल पुलिस वालो की तरह ….
पंजाब मे एक अंतरराष्ट्रीय स्तर के ख्याति प्राप्त मशहूर स्तंभकार है …. ….जो की इस बजुर्गीयत में भी बेहद अच्छा लिख रहे है …..आजकल ज्यादा कहीं ज्यादा आते जाते नहीं है ….. अखबार + टी. वी. + रेडियो और पत्रिकाओं के आधार पे ही वोह बिस्तर पे भी लिख रहे है …..
तो शुरू के दिनों में जब खुशवंत सिंह जी किसी अखबार के सम्पादकीय विभाग में थे तो वोह उस समय गुमनाम ही थे ….. लेकिन उन्होंने कुछ अलग हट के काम करने की नीति अपनाई … अखबार में पाठकों के द्वारा डाक में जो पत्र आते … उनमे से वोह सिर्फ अपनी और अखबार की आलोचना वाले पत्रों को ही प्रमुखता से छापते … इस एक अनोखे और लीक से हट कर उठाये हुए कदम ने उनको भीड़ से एकदम अलग एक नई ऊंचाई पे ले जाकर खड़ा कर दिया …. आज जो उनका मुकाम है हम सभी बहुत अच्छी तरह जानते है ….. उनका नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है …… वैसे इसमें उन की कई और प्रमुख खासियतो ने भी अहम भुमिका निभाई ……
1. अपनी जिंदगी को सबके सामने एक खुली किताब की तरह रखा …..सुंदर औरते + बेहद अच्छी किताबे और उम्दा स्काच उनकी कमजोरी रही है ..जिसको की उन्होंने खुले दिल से माना ….
5. उन्होंने अपनी जिंदगी को अपने एक अलग स्टाइल से + बेबाकी से + पारदर्शिता से + दबंगता से जिया … उनकी बेबाकी शुरू -२ में इस रुढ़ीवादी समाज के लोगो के हलक से नीचे नहीं उतरी … लेकिन उन्होंने जिंदगी को अपने अंदाज़ में और अपने ही ढंग से जिया …. और क्या भरपूर जिया …. जो भी जैसे भी जिया ….. सबको बता कर जिया …. जो लोगो को पता नहीं था …… उसको भी बता कर जीया ….. कोई दोस्त बनता है या दुश्मन ….. कभी भी इस बात की परवाह नहीं की …और अखबार में छपने वाले अपने कालम का नाम ही रखा …ना काहू से दोस्ती – ना काहू से बैर …..और उस की खासियत होता है उसके अंत में किसी पाठक द्वारा भेजा हुआ कोई मजेदार चुटकला या कोई कविता या फिर कोई घटना …..
उन जैसी जिंदगी आप और हम में से कोई भी नहीं जी सकेगा ….. हमने ना जाने कितने ही मुखोटे लगा रखे है … हमारी जिंदगी सिर्फ दोहरी या तिहरी ही नहीं …. बल्कि पता नहीं कितने प्याज के छिलको की तरह खोलो में खुद को समेटे हुए है हम ….. हम घर वालो के सामने कुछ और होते है तो बाहर वालो के सामने कुछ और ……अपनी बीवी के सामने कुछ और तो किसी दूसरे की बीवी के सामने कुछ और ……. अपने बच्चो के सामने कुछ और तो ब्ज़ुर्गी के सामने कुछ और …. और तो और अपने गुरु के सामने भी कुछ और … वाह ! रे आज के इंसान … तेरा भी जवाब नहीं ….. ना जाने हम कितने रूप और रंग बदलते है ….. यह सब देख कर मौसम हैरान होता है तो उपर खुदा अलग से परेशान होता है ….
दोस्तों में खुद भी आजाद देश के गुलामो की श्रेणी में आता हूँ ….लेकिन मेरी कोशिश ज्यादातर यही रहती है की जो मेरे साथ होता है …..कम से कम वोह मेरी कलम के साथ तो ना हो ….यह बेचारी तो अपनी आज़ादी और स्वाभिमान को कायम रखते हुए बेबाकी से + दलेरी से + इमानदारी से बगैर कोई समझौता किये सच को सच और झूठ कह सके …. खुदा हम सभी पर अपनी इस नेमत की रहमत बरसाए … अगर हम यहाँ पर समझोता करने लग गए तो कल को किसी स्वार्थवश मौके की सरकार की जी हजूरी भी कर सकते है …..कयोंकि जो आदत एक बार पड़ जाए तो फिर वोह अंत तक साथ निभाती है ……. खुदा हाफिज ..
आज़ाद देश का एक गुलाम
राजकमल शर्मा
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